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विकास विषयक भारतीय दृष्टिकोण

“विकास” एक स्वाभाविक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो प्रकृति के नियम के अनुसार संचालित होती है। विकास प्रक्रिया में चक्रीय निरंतरता के चलते समाज में विकास संबधित अवधारणाएं जन्म लेती हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी विकास की संकल्पना का दिशादर्शन कराती हैं।

पिछले कुछ वर्षों में “विकास की अवधारणा” यह सर्वाधिक चर्चा का विषय रहा है। इस काल ने विकास की संघर्ष यात्रा के अनेक चरण देखे हैं। भारत में भी विकास प्रतिमानों के द्वंदों एवं विरोधाभासों के चलते गरीबी, विषमता, बेरोज़गारी, स्थानांतरण, पर्यावरण ह्रास, नैतिक एवं सामाजिक पतन जैसी समस्याएं उग्र रूप ले रही हैं। इस विषय के अध्ययनकर्ता कहते हैं,”भारत में विकास से निर्मित समस्याओं की जड़ विकास की अभारतीय अवधारणाओं पर चल रही प्रक्रिया है।” भारतीय अवधारणाओं की पुनर्स्थापना ही इसका सही समाधान होगा। इस सन्दर्भ में भारत में विभिन्न व्यक्तियों एवं मनीषियों ने शाश्वत विकास हेतु समय समय पर युगसुसंगत चिंतन प्रस्तुत किया है। साथ ही यह भी आग्रह पूर्वक कहा है कि दृष्टि विकास के पश्चात ही सृष्टि विकास का कार्य करना चाहिए। इस चिरंतन विकास दृष्टिकोण के परिचय तथा उसकी प्रेरणा से चल रहे कार्यों का परिचय कराने का यह प्रयास है।

सृष्टि के एकात्म संबंध को केंद्र में रखकर, प्राकृतिक मर्यादाओं के आधीन रहकर, परस्परावलंबी – परस्परसंबंधी – परस्परपूरक कार्यपद्धति अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों का श्रद्धापूर्वक दोहन करना यह विकास संबंधित भारत का चिंतन/दृष्टिकोण रहा है।

प्रत्येक मानव समूह अपने जनपद एवं परिवेश का ही सहज तथा अभिन्न अंग है, इसलिए उसकी पहचान जनपद परिसर से ही स्वाभाविक है। अपने जनपद (परिसर) का विकास नियोजन, परिसर का निरंतर निरिक्षण करते हुए, अनुभवों के आधार पर आवश्यक बदलाव करते हुए परंपरागत ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान तंत्रज्ञान को जोड़ते हुए आत्मीय भाव से करना चाहिए। इसे अनुरूप व्यवस्थापन (Adaptive Management) अर्थात धारणाक्षम विकास कहा जाता है। भारतीय चिंतन आधारित उपरोक्त विकास की अवधारणा पर योजक का अटूट विश्वास है।

 

The Bharatiya Perspective on Development

“Development” is a natural process governed by the laws of nature. As development progresses in continuous cycles, the concepts related to it evolve. These concepts are passed down through generations, guiding the path of the development process.

“The Concept of Development” has been a widely discussed topic in recent years, marked by various phases of struggle. Conflicts and contradictions of development paradigms in India have aggravated social issues such as poverty, inequality, unemployment, migration, environmental degradation, and moral and social decline. According to thinkers, the issues arising from development in India stem from the reliance on non-Indian concepts in the development process. They advocate for a return to Indian concepts as the correct solution. Throughout history, various Indian thinkers and sages have advocated for contemporary thinking aimed at Sustainable Development. Additionally, they have also insisted that only when the vision behind development is clear should the manifestation of development take place. This represents an effort to promote sustainable development and the ongoing initiatives inspired by it.

Recognizing the oneness of the universe, living within the bounds of nature, adopting an interdependent, interrelated, and complementary approach, and utilizing natural resources with reverence reflects the Bharatiya thought of development.

Every human group is an inherent and integral part of its surrounding ecological setting, and so the identity of every human being is associated with the surrounding environment, making its identification with the local complex natural. Development planning should be holistic, involving continuous inspection of the surroundings, making necessary adjustments based on experience, and integrating modern science and technology with traditional knowledge. This approach is known as Adaptive Management or Cognitive Development. Yojak has unwavering faith in the above concept of development rooted in Bharatiya Developmental Philosophy.

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